पल्लवन (Pallavan) और संक्षिप्तीकरण / संक्षेपण (Sankshepan)

विषय सूचना:

संक्षेपण/संक्षिप्तीकरण (Sankshiptikaran)

किसी अवतरण के मूल भाव में किसी प्रकार का परिवर्तन किए बिना उसे लगभग एक-तिहाई शब्दों में लिखना संक्षिप्तीकरण कहलाता हैं। यह संक्षेप में इस तरह होना चाहिए कि मूल भाव खण्डित न हो।

संक्षिप्तीकरण को हम किसी बड़े ग्रन्थ का संक्षिप्त रूप बडी मूर्ति का लघु अंकन और बडे चित्र का छोटा चित्रण कह सकते है।

संक्षेपण वह रचना रूप है जिसमें समास शैली के माध्यम से किसी रचना का सार्थक उपस्थित किया जाता है। किसी विस्तृत अवतरण से अनावश्यक एवं अप्रासंगिक बातों को हटाकर उसके महत्वपूर्ण तथ्यों को लगभग एक-तिहाई शब्दों में व्यक्त कर देना सार-लेखन या संक्षेपण कहलाता है।

किसी विस्तृत विवरण, से विस्तार व्याख्या, लेख आदि में तथ्यों और निर्देषकों के ऐसे संयोजन को संक्षेपण कहते है जिसमें असम्बद्ध, पुनरावृत्त एवं अनावष्यक बातों का त्याग और सभी अनिवार्य, उपयोगी तथा मूल तथ्यों का प्रभावपूर्ण और संक्षिप्त संकलन हो।

संक्षेपण और सारांश में मूलतः भेद

संक्षेपण मूल अवतरण का एक तिहाई होता है, जबकि सारांश में उसकी मुख्य बातों को अत्यधिक संक्षेपण में लिखा जाता है।

सारांश में हम 10 पृष्ठों के अवतरण को 10 वाक्यों में भी प्रस्तुत कर सकते हैं जबकि संक्षेपण में उसकी सभी आवश्यक बातों को संक्षेपण में प्रस्तुत किया जाता है।

संक्षेपण और सारांश का अनुपात क्रमशः 3ः1 व 10ः1 होता है।

संक्षिप्तीकरण के सामान्य नियम

  1. संक्षिप्तीकरण मूलतः अनुच्छेद के भावार्थ का स्वतः पूर्ण पाठ होता है। इसलिए संक्षिप्तीकरण को पढ़ने के बाद मूल अनुच्छेद को पढ़ने की आवश्यकता नहीं होती है।
  2. संक्षिप्तीकरण मूल पाठ का लगभग एक तिहाई सार संक्षेप होता है। इसलिए अवतरण की मौलिकता को खण्डित किए बिना कम शब्दों में लिखा जाना चाहिए।
  3. संक्षिप्तीकरण मौलिक रचना को ही कम शब्दों में लिखने की शैली होने के कारण उसमें प्रयुक्त भाषा एसी होनी चाहिए जिसमें मूल पाठ के अनुरूप कम शब्दों में अधिक विवरण तथा तथ्यों काे समेटा जा सके।
  4. संक्षिप्तीकरण में गागर में सागर भरने की उक्ति सार्थक होती है। अतः भाषा की सामसिकता के साथ भाषा सरल, प्रभावपूर्ण एवं स्पष्ट होनी चाहिए।
  5. किसी भी अनुच्छेद या पाठ का संक्षिप्त रूप उसका शीर्षक होता है तथा वही उस पाठ का सार संकेतक होता है जिससे पाठक उसके विभिन्न पक्षों का अनुमान लगा सकता है।
  6. संक्षिप्तीकरण के वाक्यों को ज्यों का त्यों दोहराना नहीं चाहिए बल्कि उसके क्रिया रूपों में यथोचित परिवर्तन कर उन्हें सरल एवं सुबोध बनाना चाहिए।

पल्लवन/सम्वर्धन/विषदीकरण/वृद्धीकरण/भाव-विस्तार

  1. कहावत, मुहावरे, सूक्ति, भावपूर्ण कथन तथा नीति वचन को सरल भाषा में विस्तार के साथ लिखना पल्लवन कहलाता है।
  2. पल्लवन को विषदीकरण, वृद्धीकरण, सम्वर्धन, भाव-विस्तार आदि नामों से जाना जाता है।
  3. पल्लवन शब्द पल्लव से बना है जिसका अर्थ होता है- पत्ते।
  4. जिस प्रकार पत्ते एक पेड़ को पूर्णरूपेण आच्छादित कर देते हैं लेकिन उसके तने को नहीं ढक पाते हैं उसी प्रकार पल्लवन में जिस संक्षिप्त गूढ़ पंक्ति का भाव-विस्तार करना होता है उसके मूल तत्व को नहीं छोडते हैं।
  5. हमें जिस पंक्ति का पल्लवन करना होता है उसे ध्यानपूर्वक पढ़कर उसके गूढ़ अर्थ को भली -भाँति समझ लेना चाहिए।
  6. ऐसी स्थिति में उक्त कथन को खोलकर उदाहरण देते हुए इस तरह स्पष्ट करना होता है कि वह संक्षिप्त गूढ़ कथन सभी को सरलता से समझ में आ जाए।
  7. वृद्धीकरण व्याख्या का एक भाग होता है।
    • व्याख्या के 4 अंग होते हैं-
      • सन्दर्भ
      • प्रसंग
      • व्याख्या
      • विशेष
  8. वृद्धीकरण में सिर्फ एक ही अंग व्याख्या काम आता है।
  9. किसी सुसंगठित एवं गूढ़ विचार या भाव के विस्तार को पल्लवन कहते है अथवा किसी सूक्ति या गूढ़ विचार वाले वाक्यों के मूलभाव का तर्कसगंत शैली में विभिन्न उदाहरणों द्वारा किया गया विस्तार ही पल्लवन कहलाता है।
  10. पल्लवन और विद्वानों के बारे में यह उक्ति प्रचलित है-

“ज्यों केरा के पात में, पात-पात में पात।

त्यों चतुरन की बात में, बात-बात में बात।”

पल्लवन हेतु आवश्यक बिन्दु/ नियम

  1. दिए गए कथन को ध्यानपूर्वक पढ़कर, उसके गूढ़ अर्थ को समझकर सरल भाषा में विस्तार करना चाहिए। अर्थात् भाषा सरल, सुबोध एवं पठनीय होनी चाहिए।
  2. मूल भाव काे स्पष्ट करने के लिए उदाहरण आवश्यकतानुसार नकारात्मक उदाहरणों का भी प्रयोग करना चाहिए।
  3. मूल भाव का विस्तार क्रमानुसार एक या दो अनुच्छेद में ही लिखा जाना चाहिए। आवश्यकतानुसार इनकी संख्या बढ़ाई भी जा सकती है।
  4. वृद्धीकरण में पंक्ति का संदर्भ या प्रसंग देने की आवश्यकता नहीं होती हैं। ये सिर्फ व्याख्या की जाती है।
  5. वृद्धीकरण में अनावश्यक विस्तार से बचना चाहिए। अर्थात् अनावश्यक उदाहरणों से अपने ज्ञान का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए।
  6. वृद्धीकरण हमेशा अन्य पुरूष शैली में लिखा जाता है।
  7. वृद्धीकरण में पुनरावृति दोष से बचना चाहिए।

पल्लवन / वृद्धिकरण के प्रश्न / उदाहरण

(निम्नलिखित कथनों / सूक्तियों का भाव विस्तार या पल्लवन / वृद्धिकरण कीजिए।)

प्रश्न (1): तलवार की अपेक्षा कलम अधिक शक्तिशाली होती है।

तलवार शारीरिक बल से और कलम बौद्धिक बल से संचालित होती है। शारीरिक बल से बौद्धिक बल श्रेष्ठ माना गया है। चाणक्य नीति में लिखा है- ‘बुद्धिर्यंस्य बलं तस्य निर्बुद्धिष्च कुतो बलम्।’ अर्थात् जिसके पास बुद्धि है उसी के पास बल है, बुद्धिहीन के पास बल कहाँ ? तलवार चलाने से पूर्व क्रोध और आवेश होता है। अतः इसका परिणाम घातक होता है जब कि कलम चलाने में सूझबूझ, सद्विचार और अच्छी भावनाएँ होती हैं। इसलिए इसका परिणाम रचनात्मक होता है।

विद्धानों ने तलवार को पाशविकता, बर्बरता एवं शोषण का प्रतीक और कलम को मानवता, विकास और समृद्धि का प्रतीक माना है। तलवार किसी का सिर काट सकती है जबकि कलम मनुष्य को कुछ पाने लायक बना सकती है।

नेपोलियन कहा है, “दुनिया में दो ही ताकतें हैं- तलवार और कलम। अन्त में तलवार हमेशा हमेशा कलम से हारती है।”

जयपुर के राजा जयसिंह अपनी नई रानी के प्रेमपाष में आबद्व होकर राज काज की सुध भूल गए थे। किसी सेवक या राज कर्मचारी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह राजा कुछ कह सके। तब कवि बिहारी जी ने यह दोहा लिखकर भेजा-

“नहिं परग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल।

अलि कलि से ही विध्यौ, आगे कौन हवाल।।”

इस दोहे में राजा को हिलाकर रख दिया, वे तत्काल दरबार में आए और कवि को पुरस्कृत कर राज-काज में संलग्न हो गए।

स्पष्ट है कि तलवार डरा सकती है, मार भी सकती है लेकिन कलम लोगों का हृदय परिवर्तन कर उन्हें अपना बना सकती है। इसलिए कलम को तलवार से अधिक शक्तिशाली कहा गया है।

प्रश्न (2): थोथा चना, बाजे घना।

पल्लवन – यह विश्व प्रसिद्ध लोकोक्ति है। इसका अर्थ है- अल्पज्ञया अपूर्ण ज्ञानी व्यक्ति अपनी प्रशंसा खुद किया करते है। जो वास्तव में विद्वान होते है, वे गम्भीर होते है।

गम्भीरता और बड़बोलापन परस्पर विरोधी हैं। गम्भीर और कर्मठ व्यक्ति प्रत्येक बात को सोच समझकर कहते हैं, उनके मुख से अनर्गल बातें नही निकलती है। इसके विपरीत जो लोग बहुत बढ़ चढ़कर बातें करते है, वे प्रायः कर्मठ नहीं होते है।

हिन्दी में अनेक कहावतें इसका जीता-जागता उदाहरण हैं-अधजल घघरी झलकत जाय, खाली बर्तन अधिक शोर मचाता है, जो गरजते है वे बरसते नहीं, काम करने वाले बोलते नहीं, जो भौकते है वे काटते नहीं, नदियाँ उफनती है लेकिन समुद्र में गंभीरता होती है। ये सभी लोकोक्तियाँ अपने अपने स्तर पर यही भाव व्यक्त कर रही हैं।

चने के माध्यम से यह लोकोक्ति इसी बात पर जोर देती है कि चना तो क्या मनुष्य भी अल्पज्ञ होने से बजता है। अधिक बोलने वाले निकम्मे एवं अगम्भीर होते हैं। गम्भीर व्यक्ति सार-गर्भित बात कहता है अन्यथा लोग यही समझेंगे कि इसमें वास्तविक ज्ञान का अभाव है और यूँ ही अपनी प्रशंसा करता रहता है।

प्रश्न (3): परदोष दर्शन सबसे बड़ा दोष अथवा बुराई है।

पल्लवन :- बुराई की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि वह धारणकता को अपना अवलम्बन अन्यत्र खोजने को विवश करती है। आज मनुष्य अपनी बुराइयों को नहीं देख पाता हैं, उसे तो दूसरो की ही बुराइयाँ नजर आती हैं।

इस सन्दर्भ में इमीकीट्स ने कहा हैं, “साधारण लोग अपनी हर बुराई का दोषी दूसरों को ठहराते हैं।

स्वामी रामतीर्थ ने कहा है “अपनी आँख में शहतीर देख पान की अपेक्षा दूसरों की आँख में तिनका देख लेना सरल है।”

यदि हम अपनी बुराइयों को देखने का प्रयास करें तो हम पायेंगे कि जो बुराईयाँ हम अन्य व्यक्तियों में देखते हैं, वे सब हमारे अन्दर विद्यमान हैं।

कबीर दास जी ने कहा है- ”बुरा जो देखने मैं चला, बुरा न मिलिया कोय। जो मन खोजा आपना, मुझ से बुरा न कोय।।”

यदि हम अपनी बुराईयों को जानकर उन्हें एक-एक करके दूर करने का प्रयत्न करें तो उनके स्थान पर अच्छाइयाँ स्वतः ही प्रवेश कर जाती हैं। किसी भी रूप में बुराई का चिन्तन मन पर मलीन छाया डालता है। बुराई का चिन्तन अथवा उसकी चर्चा से कलह उत्पन्न होते हैं जो दुःख और हानि का कारण बनते हैं। इसलिए परदोष दर्शन सबसे बड़ा दोष अथवा बुराई कहा गया है।

प्रश्न (4): दुख की पिछली रजनी बीच विकसता सुख का नवल प्रभात।

पल्लवन :- सुख और दुःख मानव जीवन के अत्यन्त महत्वपूर्ण पहलू हैं। दोनों का एक-दूसरे के बिना कोई अस्तित्व नहीं है। यदि दुख न हो तो सुख का कोई महत्व नहीं और सुख न हो तो दुख मूल्यहीन है।

मानव जीवन में सुख-दुख का आवागमन बना ही रहता है। दुख के बाद आने वाला सुख अधिक आनन्ददायक होता है। धूप के जाने के बाद छाया अधिक सुखदायी होती है, कठोर परिश्रम के बाद नींद अच्छी आती है, पतझड के बाद ही नए-नए कोपल उगते हैं और हरियाली आती है, खाद की गर्मी और गन्दगी में अपने को गलाकर ही बीच अंकुरित होता है, आगे चलकर वह पुष्पित और फलित होता है, कीचड में अपनी जडे़ स्थापित करके कमल जीवनधारियों के आकर्षण का केन्द्र बनाता है, अन्न कण पिसने के बाद ही भोज्य पदार्थ बनता है।

कबीर दास जी ने कहा हैं- “दुख में सुमिरन सब करै, सुख में करे न कोय। जो सुख में सुमिरन करै, तो दुख काहै को होय।।”

सुख में व्यक्ति ईश्वर तो क्या अपने आप को भी भूल जाता है। भाव यह है कि जीवन में आने वाले विभिन्न दुखों का स्पर्ष और उसके निवारण के लिए प्रयत्न करके उनसे छुटकारा पाया जा सकता है। इसलिए कहा गया हैं कि दुख की पिछली रजनी बीच विकसता सुख का नवल प्रभात।

प्रश्न (5): अब पछताये होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।

पल्लवन – यह लोकोक्ति हमें समय पर काम करने की शिक्षा देती है। इसका अर्थ है कि हानि हो जाने के पश्चात कोई लाभ नहीं होता है। समय निरन्तर चलता रहता है, वह कभी नहीं रूकता है व न ही किसी की प्रतीक्षा करता है। भक्ति और प्रेम के द्वारा परमात्मा को भी बुलाया जा सकता है परन्तु करोड़ प्रयत्न करने पर भी बीता हुआ समय नहीं बुलाया जा सकता।

इसलिए जीवन का क्षण मूल्यवान है, इसका सदुपयोग करना चाहिए। जो जोग आलस्य में रहकर समय का सदुपयोग नहीं करते हैं, उनके हाथ से अवसर निकल जाते है। वे व्यर्थ ही दुखी होते है। जिस प्रकार धनुष से छूटा हुआ तीर वापस नहीं आता है उसी प्रकार बीता हुआ समय भी वापस नहीं आता है।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है- ‘लाभ समय को पालिबो, हानि समय की चूक।’

जो व्यक्ति समय रहते अपना काम कर लिया करते हैं, वे निश्चित रूप से सफल व्यक्तियों की श्रेणी में आते हैं। आज भी अधिकांशतः व्यक्ति इधर-उधर की बातों में अपना समय व्यर्थ करते रहते हैं-विशेष तौर पर विद्यार्थी वर्ग। वे अधिकांषतः इधर उधर घूमकर, घण्टों गप्पे मारकर अच्छे परिणाम की उम्मीद में रहते हैं। ऐसे छात्रों की दषा देखकर ही यह लोकोक्ति याद आती है कि अब पछताए होत क्या जब चिडियाँ चुग गई खेत।

प्रश्न (6): मां और मातृभूमि स्वर्ग से भी महान है।

पल्लवन :- “अपि स्वर्णमयी लंका न में लक्ष्मण रोचते । जननि जन्मभूमिष्च स्वर्गादपि गरीयसी।।”

श्रीराम द्वारा लक्ष्मण से कही बात से माता और मातृभूमि का महत्व स्पष्ट हो जाता है। राम को अपनी जन्मभूमि अयोध्या के सामने सोने की लंका भी तुच्छ नजर आती है। जननी और जन्मभूमि दोनों ही महान हैं।

मा जन्म देती है तो मातृभूमि अपने अन्नजल से हमारा पालन पोषण करती है। इसी की रज में हम लोट-लोटकर चलना सीखते हैं। माता अनेक कष्ट सहकर अपनी सन्तान को पालती है, माता वह ममतामयी मूर्ति है जाे स्वयं गीले में सोती है परन्तु बच्चे को सूखे में सुलाती है, स्वयं भूखी रहती है परन्तु अपनी सन्तान का पेट भरती है । मा की ममता, करूणा, वात्सल्य, स्नेह आदि का मूल्य नहीं चुकाया जा सकता। मा के समान मातृभूमि भी हमें जीवन का आधार देती है। उसके अन्न, जल, वायु आदि के अभाव में हम जीवित नहीं रह सकते । इन दोनों का ऋण नहीं उतार सकते ।

कवि ने मातृभूमि के बारे में कहा है-

“जिसकी रज में लोट-लोटकर बडे हुए,

घुटनों के बल सरक-सरक कर खडे़ हुए।

परमहंस सम बाल्यकाल में सब सुख पाये,

जिसके कारण धूल भरे हीरे कहलाये।।”

इतिहास में अनेक उदाहरण ऐसे मिलते हैं। राष्ट्रकवि मैथिलीषरण गुप्त ने मातृभूमि की क्षमामयी, दयामयी, प्रेममयी, भवनिवारिणी, विश्वपालिनी आदि विशेषणों से सम्बोधित किया है।

पशु-पक्षी, जीव-जन्तु, सभी अपने जन्मस्थान से प्रेम करते हैं फिर मनुष्य तो सृष्टि का सबसे बुद्धिमान प्राणी है, उसमें अपनी मा और मातृभूमि के प्रति श्रद्धा का भाव होना चाहिए। जिसमें अपनी मातृभूमि के प्रति प्रेम नहीं है, वह तो पषु के समान माना गया है।

कवि के शब्दों में

“भरा नहीं जो भावों से,

बहती जिसमें रसधार नहीं।

वह हृदय नहीं पत्थर है,

जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।।”

प्रश्न (7): का बरखा जब कृषि सुखाने।

पल्लवन – गोस्वामी तुलसीदास द्वारा कृत इस सूक्ति का अभिप्राय है कि समय पर किए गए कार्य की ही सार्थकता है। समय निकल जाने के बाद उस कार्य को करने से कोई लाभ नहीं है। अर्थात् अवसर निकल जाने के बाद उद्देष्य की पूर्ति नहीं हो पाती है।

हमारा प्रत्येक कार्य समय से जुडा हुआ है। समय निरन्तर चलता रहता है, वह किसी की भी प्रतीक्षा नहीं करता है। हमारे जीवन के प्रत्येक कार्य का अवसर भी समय के साथ गुजरता रहता है। जो व्यक्ति इस रहस्य को जानता है, वह अपने कार्यों को यथासमय सम्पन्न करता है, वह अपने किसी भी अवसर को व्यर्थ नहीं जाने देता है, उसका सदुपयोग करता है और लाभान्वित होता है।

तुलसीदास जी ने कहा है, ‘मन पछिताई है अवसर बीते।’ प्रत्येक कार्य समय पर ही फलदायी होता है, समय निकलने के बाद वह निरर्थक हो जाता है। जैसे गाडी छूट जाने के बाद दमकल आए तो उसकी क्या उपयोगिता ? यदि कोई प्यासा व्यक्ति पानी के बिना मर जाए और उसके बाद कितना भी पानी उपलब्ध करा दिया जाए, सब व्यर्थ है।

तुलसीदास जी ने कहा है-

“तृषित वारि बिनु जो तनु त्यागा, मुट करिइ का सुधा तडागा।

का बरखा जब कृषि सुखाने,समय चूकि ’ पछिताने।”

प्रश्न (8): परिश्रम सफलता की कुन्जी है।

पल्लवन – परिश्रम ही बल, बुद्धि, वैभव, और विद्या का अथाह सागर तैयार कर देता है। परिश्रम ने आज मानव को उसके जंगलीपन से निकालकर देवताओं के समान शक्ति प्रदान की है। परिश्रम मुख्य रूप से दो प्रकार का होता है-शारीरिक और मानसिक।

अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सभी प्राणियों को शारीरिक और मानसिक प्रयत्न करने पडते है, ये प्रयत्न ही परिश्रम होते है। परिश्रम के बिना कोई भी कार्य सफल नहीं हो सकता ।

संस्कृत में कहा गया है-

“उद्यमेन् हि सिद्धयन्ति कार्याणि, न मनोरथै :।

न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविषन्ति मुखे मृगा :।।”

परिश्रम से ही सफलता के नए द्वार खुलते हैं । जो व्यक्ति जितना अधिक परिश्रम करता है, वह उतनी ही अधिक सफलता की सीढियाँ चढ़ता है। इसके विपरीत असफलता के गर्त में गिरने वाले परिश्रम से कतराते हैं और असफल होने पर भाग्य को दोष देते हैं। भाग्य से ही सब कुछ मिलता है, ऐसा कायर पुरूष सोचते हैं। परिश्रम हर प्रकार के कठिन और असम्भव कार्य को सरल व सम्भव बना देता है।

कवि के शब्दों में –

“करत-करत अभ्यास के, जडमति होत सुजान।

रस्सी आवत-जावत हवै, सिल पर परत निसान।।”

परिश्रम से जो सफलता मिलती है उसमें प्रेममयी पवित्रता की सुगन्ध आती है। इससे सब जगह कल्याण और विकास का वातावरण फैलता है। अतः हमें किसी भी प्रकार की सफलता प्राप्त करने के लिए परिश्रम करना चाहिए, भाग्य के भरोसे नहीं बैठना चाहिए। क्यों क कर्म के पह्ररी को भाग्य नहीं छजता है।

प्रश्न (9): हिन्दी हमारी मातृ और राष्ट्रभाषा है।

पल्लवन – भारत एक बहुभाषित देश है। यहाँ अनेक प्रकार की भाषाएँ बोली जाती हैं । इन सभी भाषाओं में हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है। हिन्दी भाषा भारत की एकता व अखण्डता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। सभी मनुष्य विभिन्न संस्कृति के हैं परन्तु हिन्दी भाषा राष्ट्रभाषा होने के कारण सभी वर्गां, व्यक्तियों एवं जातियों के लोगों को एक सूत्र में बाँधती है। हिन्दी भाषा भारत के विभिन्न लोगों को अपनी भाषा होने के कारण एकीकृत करती है, चाहे वह कहीं भी रहता है अगर हिन्दी भाषा जानता हो तो किसी से भी अपने भावों को व्यक्त करता है और भावों का एक होना एकता का प्रतीक है।

यदि हर मनुष्य एकता में रहेगा तो उसमें देशभक्ति की भावना जागृत होगी और जब मनुष्य हिन्दी को मातृभाषा मानेगा तब उसमेंं एकता की भावना उत्पन्न होगी, अपनी भाषा के प्रति रूचि उत्पन्न होगी।

कवि के शब्दों में –

“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल,

बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।

अंग्रेजी पढि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन,

जै निज भाषा ज्ञान बिन, रहत बिन हीन को हीन ।।”

प्रत्येक राष्ट्र की अपनी भाषा होती है जो देश में सबसे अधिक बोली और लिखी जाती है। जब तक अपनी भाषा और संस्कृति नहीं हो, वह राष्ट्र अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकता। राष्ट्रभाषा उस भाषा को कहते है जिसमें समूचा राष्ट्र अपने भावों को व्यक्त कर सके। हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है, संविधान में इसे राजभाषा माना गया है। क्योंकि यह जन-जन की भाषा है। हिन्दी विभिन्न धर्म के अनुयायियों की वाणी है जिसमें उन्होंने अपनी भावनाएँ व्यक्त की है।

कवि के शब्दों में –

“जिसकी ही स्वाभाविक लिपि में , वेदों की अमृत वाणी है।

रामायण-महाभारत की, जिसमें कथा सुहानी है।

नवयुग की इसमें धडकन, भावों की इसमें आशा है।

हिन्दी ही हमारी मातृ और राष्ट्रभाषा है।।”

प्रश्न (10): वृक्ष धरा के हैं आभूषण , दूर करें ये सभी प्रदूषण।

पल्लवन – मानव और प्रकृति का सम्बन्ध अत्यन्त सनातन है। मानव प्रकृति का पोषक रहा है और प्रकृति मानव की। कुछ दशकों में मनुष्य ने प्रकृति के साथ छेड़ छाड़ शुरू की, उसका दुरूपयोग करके स्वयं को उसका मालिक मानने लगा जिससे प्रकृति भी कुपित होकर अपना भयंकर रूप दिखाने लगी।

कवि के शब्दों में –

“धरती जो उगलती थी सोना, उसकी थी बडी शान।

डसी धरती को प्रदूषण ने, आज बना दिया वीरान।।”

हमारे आस-पास का प्राकृतिक वातावरण जिसमें हम रहते हैं, पर्यावरण कहलाता है। विभिन्न कारणों से वातावरण का दूषित होना या प्राकृतिक सन्तुलन बिगडना ही प्रदूषण कहलाता है। प्रदूषण के कारण आज वायु इतनी दूषित हो गई है कि इसमें श्वास लेना भी दूभर हो गया है। प्रदूषण से बचने के लिए आवश्यक है कि राष्ट्रीय वन सम्पदा का विकास किया जाए, घने छायादार वृक्ष लगाएँ जाएँ, हरियाली की मात्रा बढाई जाए, वृक्ष की हरियाली के उद्गम होते है, प्रदूषण के नाशक होते है। तभी कहा गया है कि “वृक्ष धरा के हैं आभूषण, दूर करे ये सभी प्रदूषण।”

पर्यावरण के प्रति जागरूकता से ही हम स्वास्थ्यप्रद जीवन जी सकेंगे तथा आने वाली पीढ़ी को भी प्रदूषण से मुक्ति दिला सकेंगे। इसके लिए उन्नत वैज्ञानिक संसाधनों को नष्ट करने की आवश्यकता नहीं है अपितु विकल्प ढूँढने की आवश्यकता है। इसके लिए मानव को अपनी स्वार्थी व लालची प्रवृति का त्याग करना होगा तभी अन्य उपाय कारगर साबित होंगे।

प्रश्न (11): कर्म गति टारे नहीं टरी।

पल्लवन –

“यह अरण्य झुरमुट, जो काटै अपनी राह बना ले।

क्रीत दास वह नहीं किसी का, जो चाहे अपना ले।

जीवन नहीं उसका युधिष्ठिर, जो इससे डरते हैं।

उनका है जो चरण रोप, निर्भय होकर बढते हैं।।

युधिष्ठिर को दिए गए उपदेश से यही स्पष्ट होता है कि मानव अपने पुरूषार्थ का सहारा ले तो कुछ भी कर सकता है। भाग्य के भरोसे बैठकर आँसू बहाने की अपेक्षा कर्म के बल पर अपनी इच्छाओं को पूरी कर लेना सार्थक है, कर्म के प्रहरियों की ऐसी मान्यता है। इसके विपरीत भाग्यवादियों का तर्क है कि भाग्य में जो कुछ लिखा हैं, मनुष्य को केवल वही प्राप्त होता है। भाग्य के लेख को मिटाना मनुष्य के वश की बात नहीं हैं। ईश्वर से मनुष्य जो कुछ लिखवाकर लाया है, केवल वह ही पा सकता है। यदि ऐसा नहीं है तो सत्यवादी हरिषचन्द्र को एक नीच के हाथों क्यों बिकना पडता? श्रीराम को 14 वर्ष का वनवास क्यों भुगतना पड़ता?

भाग्यवादी इसी प्रकार के अनेक उदाहरण देकर अपनी बात को सिद्ध करने का प्रयास करते है।

कवि के शब्दों में –

“गुरू वशिष्ठ से पण्डित ज्ञानी, शोध में लग्न हारी।

सीता हरण मरण दशरथ को, तन में विपत मारी।”

“कहत कबीर सुनौ भाई साधौ, होनी हो के रही।।”

“अजगर करै न चाकरी, पक्षी करै न काम।

दारा मलूका कह गये, सब के दाता राम ।।”

इसके विपरीत कर्म के प्रहरी कर्म की ही प्रधानता मानते हैं। समुद्र तट पर बैठा पर बैठा कायर व्यक्ति समुद्र के रत्नों को नहीं पा सकता, इन्हें प्राप्त करने के लिए उसे समुद्र की अतल गहराइयों में गोते लगाने पडते है। अतः व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि भाग्य के भरोसे न रहकर कर्म करते रहना चाहिए। कहा भी गया है कि ईश्वर भी उन्ही की सहायता करते है जो अपनी सहायता खुद करते हैं।

प्रश्न (12): साँच बराबर तप नहीं।

पल्लवन – संस्कृत में एक सूक्ति है- ‘सत्येन् धारयते जगत्।’ अर्थात् सत्य ही जगत को धारण करता है।

व्यवहार में हम देखते हैं कि यदि कोई व्यक्ति अथवा राष्ट्र बार-बार असत्य का सहारा लेता है तो वह अन्ततः अवनति को ही प्राप्त करता है, उसकी साख गिर जाती है और वह सार्वजनिक अवमानना का पात्र बनता है। असत्यवादी व्यक्ति यदि कभी सत्य वचन कहे भी तो लोग उस पर विश्वास नहीं करते हैं।

सत्य-असत्य के सम्बन्ध मे महाभारत के युधिष्ठिर का दृष्टान्त अत्यन्त अर्थपूर्ण है जिसने युद्ध जीतने के लिए असत्य का सहारा नहीं लिया। राजा हरिषचन्द्र तो सत्य के पथ पर चलते हुए राज-पाठ तक छोड आए और सत्य का पालन करने के लिए अपने परिवार के साथ खुद को भी बेच दिया। संसार के सभी धर्मउपदेशक और महापुरूष सत्य का गुणगान करते आए है।

सत्यवादी व्यक्ति अन्य किसी प्रकार के साधन के बिना भी लोक में पूज्य और परलोक में मोक्ष का अधिकारी होता है। कवि के शब्दों में –

“साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।

जके हिरदय साँच है, ताकै हिरदय आप।।”

प्रश्न (13): गरीबी क्रान्ति और अपराध की जननी है।

पल्लवन :- यह सूक्ति गरीब व्यक्ति की विवश मनोवृति की परिचायक है। मनष्य का जब पेट नहीं भरता है, तन ढ़कने के लिए जब वस्त्र उपलब्ध नहीं होते है, रहने के लिए झोंपडी भी नसीब नहीं होती है तब उसके मन में विद्रोह भड़कता है और वह अपराध की ओर उन्मुख हो जाता है।

संस्कृत में कहा गया है- ‘बुभुक्षतः किम् न करोति पापम्।’ अर्थात भूखा व्यक्ति कौनसा पाप नहीं करता है?

यदि हम अपराधों के मूल को देखें तो गरीबी ही इसका कारण निकलता है। चोरी, डकैती, अपहरण आदि के मूल में गरीबी ही है। यह नारी को वेश्यावृति के लिए और माता पिता को सन्तान बेचने के लिए विवश कर देती है। गरीबी मानव समाज का सबसे बडा दुःख है। व्यक्ति चाहे कितना भी तेज-तर्रार हो, प्रतिभाशाली और कर्मठ हो यदि वह दुर्भाग्यवश गरीबी झेल रहा है तो उसकी प्रतिभा दब जाती है, पग-पग उसके स्वाभिमान को चोट पहुँचाती है, उसका अपमान और शोषण होता है, ऐसे में उसके मन में असन्तोष और विद्रोह उत्पन्न होना स्वाभाविक है।

विश्व में जितनी भी क्रान्तियाँ हुई हैं उनका मूल कारण गरीबी और शोषण ही रहा है । शोषण के कारण समाज में गरीबी रहती है, शोषित वर्ग दुखी रहता है, उसके मन में शोषक के कारण समाज में गरीबी रहती है, शोषित वर्ग रहता है, उसके मन में शोषक वर्ग के प्रति आक्रोश पनपता है। अतः वे संगठित होकर विद्रोह कर देते है और क्रान्ति का उदय होता है। रूस की क्रान्ति उसका जीता जागता उदाहरण है। अमेरिका के लिंकन ने अंग्रेजों को हटाने के लिए क्रातिकारी संघर्ष किया। भारत में स्वतंत्रता आन्दोलन का इतिहास भी ऐसा ही है।

इसी सन्दर्भ में किसी विद्वान ने कहा है, “यदि गरीबी न होती तो विश्व में क्रान्ति और शान्ति का इतिहास कोरा ही बना रहता।”

प्रश्न (14): “मन के हारे हार है, मन के जीते जीत”

पल्लवन – किसी भी लक्ष्य की आधी प्राप्ति तो कार्य शुरू करने की आशा और उत्साह के संचार से ही हो जाती है। जब मनुष्य अपने मन में लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सकंल्प लिए चलता है तब मार्ग में आने वाली बाधाओं या तकलीफों का प्रभाव कम होता रहता है।

बाहरी प्रोत्साहन का अपना महत्व होता है परन्तु मनुष्य जब तक खुद को प्रेरित न करे तब तक लाख अनुकूलताएँ एवं सुअवसर सामने हो लक्ष्य की प्राप्ति असम्भव ही रहती है। मन से विजयी रहने की भावना ही जीवन है मनुष्य की हार-जीत सच्चे अर्थों में मन के अन्दर निहित है। मन से हारे व्यक्ति की जीत असम्भव है।

यदि मन हार गया तो तन भी हार जाएगा। घातक से घातक बीमारी में व्यक्ति उससे जूझने का सकंल्प धारण कर ले तो उसकी अपनी जिजीविषा नवीन प्राणों का संचार कर रोग सेलडने की शक्ति पैदा कर देती हैं। दरअसल मन का सकंल्प शरीर की माँसपेशियों की कसावाट लेकर प्रकट होता है और फिर इसमें जिन्दगी का समर (युद्ध) जीतने में मदद मिलती है। इसलिए जीत का सम्बन्ध शारीरिक और भौतिक सामर्थ्य की तुलना में मानसिक धारणा में अधिक है।

गुरूनानक जी ने कहा है- ‘मन जीते जग जीते।’

प्रश्न (15): मौन मूर्खों का आभूषण है। (मौनं मूर्खस्य भूषणम्)

(Silence is the Ornament of the Ignorant)

पल्लवन :- मूर्ख, अज्ञानी, असभ्य व कटुभाषी व्यक्ति जब तक मौन रहता है तब तक उसके मिथ्या ज्ञान व सदाचारी होने की वास्तविकता/सच्चाई छिपी रहती है। विद्वानों व सभ्य लोगों के मध्य एसेे लोग मौन रहकर ही अपनी छद्म छवि व सम्मान को अक्षुण्ण बनाए रख सकते है।

जैसे ही उनके द्वारा अपनी वाणी से शब्द प्रकट करते है तो उनके अतार्किक कुतर्कां व विचारों को सुनकर विद्वजन उनकी मूर्खता की पहचान कर सकता है इस कारण ऋषि कवि भर्तृहरि ने नीतिशतक में लिखा है कि ‘‘मौनं मूर्खस्य भूषणम्’’ अर्थात् मौन मूर्ख व्यक्ति का आभूषण है, मौन ही वह आच्छादन है जिससे मूर्ख व्यक्ति अपनी मूर्खता को ढ़के रख सकता है, ऐसी मूर्खता को, जो वाणी के माध्यम से प्रकट होकर उसे हास्य का पात्र बना सकती है। इसलिए मौन को मूर्ख व्यक्ति के वास्तविक चरित्र का रक्षा कवच कहा गया है।

परन्तु मौन की महिमा इससे कहीं अधिक व्यापक व दिव्य है। “मौन रूपी भाषा व आचरण सर्वश्रेष्ठ व ईश्वरीय है। मौन में शब्दों की अपेक्षा अधिक वाक्-शक्ति होती है।” मौन रूपी आचरण वाला व्यक्ति अत्यधिक धैर्यवान, सहनशील, क्षमाशील व उच्च लक्ष्य धारित होता है। मौन के वृक्ष पर शांति के फल फलते हैं। मौन में मन शान्त, सहज व उर्वर होता है। व्यक्ति की कल्पनाशीलता, सृजनशीलता व विचारों का मंथन मौन की दशा में ही सम्भव है। जहां विचारों का सम्मान ना हो और सत्य अप्रिय लगे वहां मौन सर्वोच्च साधन है। परन्तु मौन आचरण परिस्थिति अनुसार परिवर्तनशील होना चाहिए।

गीता में भी कहा गया है कि- जहां पाप का बल बढ़ रहा हो, जहां छल-कपट हो रहा हो वहां पर मौन रहना उचित नहीं है, अर्थात ‘‘मौन की सीमा’’ भी तय होनी जरूरी है। प्रश्नगत सूक्ति में ऋषि कवि भर्तृहरि ने सर्वज्ञों के समाज में मूर्खों का मौन रहना उनके सम्मान को बचाए रखने का उपयुक्त साधन बताया है, अर्थात ‘‘मौनं मूर्खस्य भूषणम’’

प्रश्न (16): क्षमा वीरों का आभूषण है। (क्षमा वीरस्य भूषणम)

(Heroes Pride Forgiveness)

पल्लवन :- क्षमा व्यक्ति का अनमोल व सर्वोत्तम गुण है। क्षमाशील व्यक्ति हमेशा संतोषी, धैर्यशील,सहनशील, विवेकवान व वीर होता है। वह व्यक्ति हमेशा शांतिप्रिय व मानसिक रूप से संतोषी होता है। जबकि अहंकारी, कायर, कमजोर व अविवेकी व्यक्ति क्षमाशील नहीं हो सकता। क्षमा उसे ही शोभा देती है जो वीर है। वीर होने से यहां आशय यह है कि वह व्यक्ति जो शक्तिशाली है, जो दण्ड देने, प्रतिरोध करने व प्रतिशोध करने की सामर्थ्य रखता है वह व्यक्ति यदि क्षमा करता है तो वह महान है। उसका यह क्षमाशील आचरण प्रशंसनीय है। जबकि कमजोर व कायर व्यक्ति यदि क्षमा करने की बात कहता है तो वह हास्यास्पद व दूर्बलता का प्रतीक है।

कवि रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में –

‘‘क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो,

उसको क्या जो दंतहीन, विषरहित, विनीत, सरल हो। ’’

क्षमा अकर्मण्यता व कायरता का प्रतीक न बने इसलिए ‘‘क्षमा की सीमा’’ तय होनी भी जरूरी है। अर्थात् दुष्ट व्यक्ति व धोखेबाज व्यक्ति के सन्दर्भ में क्षमाशील व्यक्ति को विवेकपूर्ण निर्णय लेना चाहिए अन्यथा क्षमा कपट व छल का कारण भी बन सकती है। जिसका उदाहरण भारतीय इतिहास में महान सम्राट पृथ्वीराज चौहान व मोहम्मद गोरी के बीच हुए युद्धों में देखने को मिलता है। वहीं श्रीकृष्ण ने क्षमा के गुण की सीमा तय कर शिशुपाल का संहार किया था।

एक जापानी लोकोक्ति के अनुसार ‘‘जिस व्यक्ति में पश्चाताप का भाव नहीं है, उसे माफ करना पानी पर लकीर खींचने के समान निरर्थक है।’

क्रोध पर विजय पाकर क्षमाशील बनना लक्ष्य प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन हो सकता है। महान व्यक्ति अपने आस-पास के निर्बल व तुच्छ व्यक्तियों की गलतियों को नजरअंदाज कर अपने निर्धारित लक्ष्य की ओर अग्रसर रहते हैं।

कवि रहीम के शब्दों में –

क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उतपात।

कह रहीम हरि का घट्यो, जो भृगु मारी लात ।।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि क्रोध विनाश का कारण बनता है। उद्दण्ड व प्रतिशोध की भावना वाले लोग कायर की श्रेणी में एवं क्षमाशील, सहनशील व उच्च लक्ष्य धारित लोग वीर व महान लोगों की श्रेणी में गिने जाते हैं, अर्थात ‘‘क्षमा वीरों का आभूषण है।’’

प्रश्न (17): करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान ।

“Practice Makes a Man Perfect”

पल्लवन :- सतत प्रयत्न से सफलता प्राप्त होती हैं “बार बार अभ्यास करने से मंद बुद्धि या मूर्ख व्यक्ति भी विद्वान बन जाते हैं; अर्थात् अभ्यास व्यक्ति का सबसे बड़ा शिक्षक हैं। बोधिचर्यावतार ने कहा कि “कोई ऐसी वस्तु नहीं हैं जो अभ्यास करने पर भी दुष्कर हो।” अभ्यास मनुष्य को अपने कार्य में दक्ष बना देता हैं। वास्तव में निरंतर अभ्यास ही ज्ञानार्जन का मूल मंत्र है। अल्प बुद्धि जन यदि निरंतर अभ्यास कीजिए तो विद्वान भी बन सकते हैं। अभ्यास की बारंबारता में स्मरण शक्ति और समझ का दायरा बड़ा होता हैं। ज्ञान आदत बनने लगता हैं।

कवि वृंद ने इस कथन के उदाहरण के दूसरी पंक्ति यह कही है-‘ रसरी आवत जात ते सिल पर पड़त निशान ‘ अर्थात् कुएँ पर कोमल रस्सी को बार-बार खींचने से पत्थर की सिल पर भी अपने निशान छोड़ देती है जबकि मनुष्य तो एकदम जड़ तो होता ही नहीं, उसमें बुद्धि का कुछ तत्व तो अवश्य होता ही है। वैसे ही निरंतर अभ्यास करने से मंद बुद्धि व्यक्ति भी कई नई बातें सीखकर उनका ज्ञान बढ़ा सकता है। असफलता के माथे में कील ठोककर सफलता पाई जा सकती है।

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