निबन्ध (Nibandh) लेखन 

निबन्ध “नि” उपसर्ग एवं मूल शब्द “बन्ध” से बना है जिसका तात्पर्य यह है कि किसी विषय की मूल विषय-वस्तु को केन्द्र में रखते हुए उससे सम्बन्धित समस्त तथ्यों एवं आयामों विषय के वर्तमान-भूत-भविष्य आदि के सकारात्मक एवं नकारात्मक पक्षों पर प्रकाश डालते हुए सुसंगत तार्किक व्याख्या के आधार पर समालोचनात्मक विश्लेषण करते हुए सहज प्रवाहमान, क्रमबद्ध एवं लयबद्ध सूत्र में बाँधना एवं उक्त विषय को परिपूर्ण रूप प्रदान करना। जिसके अध्ययन से उक्त विषय-वस्तु स्वतः परिपूर्ण रचना परिलक्षित हो।

निबन्ध की विशेषतायें एवं शैली

  1. सर्वप्रथम प्रश्न-पत्र में दिए गए विषयों में से निबन्ध लेखन हेतु अनुकूल विषय का चयन।
  2. रूचि, विषय के सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी/तथ्य एवं भाषायी लेखन कौशल के आधार पर निबन्ध लेखन के लिये विषय का चयन किया जाना चाहिए।
  3. उत्तर-पुस्तिका में निबन्ध लिखना आरम्भ करने से पूर्व चयनित विषय से संबंधित मूल विषय वस्तु, समस्त मुख्य बिन्दुओं तथ्यों एवं आयामों का Rough Framework (कच्ची रूपरेखा) बना लेना चाहिए। तद्नुसार अनुच्छेद शैली में निबन्ध लिखा जाना चाहिए।
  4. सामान्यतः एक आदर्श निबन्ध अनुच्छेद शैली में ही लिखा जाना चाहिए। निबन्ध में अनुच्छेद से पूर्व शीर्षक या प्रमुख बिन्दु का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। विषयवस्तु से सम्बन्धित मुख्य तथ्यों, वाक्यों कथनों एवं उद्धरण (Quotation) आदि को रेखांकित (underline) किया जाना चाहिए। या किसी विशिष्ट कथन या उद्धरण (Quotation) को उद्धरण चिह्न ‘‘……………….’’ (Quotation Mark) अंकित किया जाकर लिखा जा सकता है।
  5. एक अनुच्छेद में एक पक्ष या आयाम पर ही चर्चा की जानी चाहिए। मिश्रित तथ्यों या आयामों को एक ही अनुच्छेद में नहीं लिखा जाना चाहिए। निबन्ध में वाक्यों शब्दों एवं वर्तनी की शुद्धि का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए।
  6. निबन्ध के समस्त तथ्य व विचार तथ्यपरक, तार्किक, प्रासंगिक, सुसंगत एवं विषयानुकूल होने चाहिए।
  7. विषय से सम्बन्धित कथनों एवं उद्धरण (Quotation) आदि को लिखना चाहिए। उक्त कथन एवं उद्धरण विषय के प्रासंगिक एवं सुसंगत होने चाहिए। गद्य शैली या पद्य शैली दोनों शैली के संक्षिप्त कथन/उद्धरण लिखे जा सकते है।
  8. सरकारी नीतियों, निर्णयों, विनिश्चयों, लोकतान्त्रिक एवं संवैधानिक मूल्यों का सदैव समर्थन किया जाना चाहिए। सरकारी नीतियों, संवैधानिक एवं लोकतान्त्रिक मूल्यों एवं सरकार के निर्णयों की आलोचना नहीं की जानी चाहिए।
  9. विषय की माँग के अनुसार यदि किसी नीति, विचार या तथ्य की आलोचना या नकारात्मक वर्णन किया जाना हो तो अप्रत्यक्ष रूप से किसी अन्य विचारक या आलोचक का संदर्भ देते हुए लिखना चाहिए। आलोचना के पश्चात् बचाव हेतु युक्तियुक्त तर्कसंगत समालोचना भी की जानी चाहिए।
  10. निबन्ध लेखन में विषयानुरूप क्रमिक, लयबद्ध, तारतम्ययुक्त, सहज प्रवाहमान अनुच्छेद लिखे जाने चाहिए।
  11. निबन्ध में अन्त तक विषयवस्तु की मौलिकता बनी रहनी चाहिए। निरर्थक, असंगत, अतार्किक एवं अनावश्यक तथ्य, विचार या वाक्य नहीं लिखने चाहिए।
  12. निबन्ध न्यूनतम 6-7 अनुच्छेद में लिखा जाना चाहिए। निम्नांकित विशेषताओं के आधार पर अनुच्छेद लिखने चाहिए-
  • प्रथम पैरा अत्यंत रोचक, आकर्षक एवं प्रभावशाली होना चाहिए। प्रथम पैरा विषय से सम्बन्धित वर्तमान में दृष्टिगोचर किसी समसामयिक घटना, मुद्दा या किसी समस्या का वर्णन करते हुए प्रश्नात्मक शैली में प्रस्तुत करना चाहिए।
    • अर्थात उक्त विषय वर्तमान में चर्चा में क्यों है। इस तथ्य की गम्भीरता, प्रासंगिकता के सन्दर्भ को दर्शाते हुए निबन्ध की शुरूआत की जानी होती है। यदि निबन्ध का विषय समस्यागत है तो उक्त समस्या का वर्तमान में चर्चा में रहने के किसी तथ्य को दर्शाते हुए आरम्भ किया जाना चाहिए।
    • साथ ही उक्त गम्भीर विषय या समस्या हेतु सभी सुसंगत कारणों प्रभावों नाकाफी प्रयासों एवं भविष्य में क्या होना चाहिए, से सम्बन्धित वाक्यों को प्रश्नवाचक शैली में लिखकर निबन्ध की एक रूपरेखा स्पष्ट की जाती है।अर्थात् उक्त समस्त वाक्यों का अनुच्छेदवार वर्णन किया जाना होता है। प्रश्नवाचक वाक्य यथा- आखिर क्या है यह समस्या? क्या है इसके मूल कारण? वर्तमान में इसके क्या प्रभाव? समाधान हेतु अभी तक किए गए प्रयास? क्या होने चाहिए इसके समाधान के प्रयास? आदि अनेक प्रश्न मन-मस्तिष्क में निरन्तर उत्पन्न हो रहे हैं, जिनके जवाब अपेक्षित है?
  • द्वितीय पैरा :- विषय का सामान्य परिचय एवं जानकारी। विषय से सम्बन्धित समस्त सुसंगत तथ्यों का वर्णन।
  • तृतीय पैरा :- विषय या समस्या के उद्भव एवं विकास के कारण एवं जिम्मेदारियों का निर्धारण।
  • चतुर्थ पैरा :- विषय के सकारात्मक व नकारात्मक प्रभाव/परिणाम। सामंजस्यपूर्ण विवेचन।
  • पंचम पैरा :- विषय पर वर्तमान परिपेक्ष्य पर वर्णन। समस्या के निराकरण व समाधान हेतु अभी तक किए गए प्रयास एवं वर्तमान में चल रहे प्रयास (राजनैतिक, सरकारी, सामाजिक एवं वैयक्तिक)।
  • षष्ठम पैरा :- अभी तक के प्रयास नाकाफी होने के स्थिति में लेखक के सुझाव। सुझाव तार्किक एवं व्यावहारिक होने चाहिए।
  • सप्तम पैरा :- भविष्य में सफलता/निराकरण की उम्मीद के साथ आशावादी दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए उपसंहार/निष्कर्ष लिखना चाहिए। अन्तिम पैराग्राफ में सकारात्मक एवं आशावादी दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।

ये भी देखें : उद्धरण (Quotation): पल्लवन और निबंध लेखन के लिए

निबन्ध के विषय

1. पर्यावरण अध्ययन सम्बन्धित मुद्दे

  • जलवायु परिवर्तन
  • पर्यावरण प्रदूषण
  • वैश्विक तापवृद्धि (Global Warming)
  • जैव-पारिस्थितिकी असंतुलन
  • ओजोन क्षरण
  • कार्बन उत्सर्जन

2. महिलाओं से सम्बन्धित मुद्दे

  • महिला सशक्तीकरण
  • महिलाओं के विरूद्ध अपराध-घरेलू हिंसा/ कार्यस्थल पर यौन शोषण
  • कन्या भ्रूण हत्या
  • दहेज प्रथा/बाल विवाह/लिंग भेद
  • POSCO Act

3. मीडिया सम्बन्धित मुद्दे

  • इलेक्ट्रॉनिक एवं प्रिन्ट मीडिया
  • पत्रकारिता-दशा और दिशा
  • मीडिया और समाज
  • मीडिया और लोकतन्त्र

4. सूचना प्रौद्योगिकी सम्बन्धित मुद्दे

  • सूचना प्रौद्योगिकी-वरदान या अभिशाप
  • साइबर क्राइम
  • युवा एवं सोशल मीडिया
  • सोशल मीडिया एवं लोकतन्त्र

5. राष्ट्र की आंतरिक सुरक्षा से सम्बन्धित मुद्दे

  • आतंकवाद
  • नक्सलवाद
  • साम्प्रदायिकता
  • उपराष्ट्रवाद
  • धर्म, जाति, वर्ग, भाषा, क्षेत्र एवं नृजातीयता के आधार पर विभेद एवं संघर्ष

6. लोकतन्त्र सम्बन्धित मुद्दे

  • भारतीय लोकतन्त्र – वर्तमान परिदृश्य
  • लोकतन्त्र दशा और दिशा
  • लोकतन्त्र एवं युवा
  • लोकतन्त्र एवं निर्वाचन प्रणाली
  • लोकतान्त्रिक मूल्य – न्यायिक स्वतन्त्रता, मानवाधिकार, स्वतन्त्रता, समानता, धर्म निरपेक्षता आदि।

निबन्ध के उदाहरण / प्रश्न (Format)

पर्यावरण अध्ययन पर निबन्ध का नमूना

(नोट :- यह सम्पूर्ण निबन्ध नहीं है, निबन्ध लेखन हेतु महत्वपूर्ण वाक्यों/अनुच्छेद का संकलन है।)

‘‘विकास के भमूण्डलीकृत प्रतिमानों और पर्यावरण की ब्रह्मण्डव्यापी संकल्पनाओं ’ के मध्य टकराहट का परिणाम ही आज विश्व के समक्ष जलवायु परिवर्तन, वैश्विक तापक्रम, ओजोन क्षरण व सुनामी जैसी आपदाएं साथ ही ई-कचरा, प्रदूषण व रेडियो धर्मिता जैसी अनिस्तारित चुनौतियां उपस्थित कर रहा है।

बदलती महादेशीय व अन्तर्देशीय जलवायुयिक परिस्थितियों के समानांतर अनुकूल वनीकरण का अभाव एवं जैव पारिस्थितिकी तंत्र का बिगड़ता समायाजे न जहां हमारी समाजार्थिक विकास प्रवृतियों से जुड़ा है वहीं दूसरी आरे हमें इस अनियमित व अनैतिक विकास प्रक्रिया के पनु र्मंथन हेतु प्रेरित कर रहा है।

भारत में मानसून की दशा और दिशा बिगड़ रही है, टापुओं पर बसे देश डूबने की कगार पर है, अमेरिका में केटरीना जैसे चक्रवाती तूफानों की संख्या दिन व दिन बढ़ती जा रही है, यूरोप में आश्चर्य में डाल देने वाली अभूतपूर्व बर्फ पड रही है, हिमालय के ग्लेशियर पीछे खिसकते जा रहे है, आस्ट्रेलिया के पूर्वी तट पर स्थित प्रवाल जीवों का निधन हो रहा है और सर्वप्रमुख जैव पारिस्थितिकी तंत्र पर संकट के बादल मंडरा रहे है।

इन सबके पीछे ग्लोबल वार्मिंग व विकास के नाम पर बढ़ता कार्बन उत्सर्जन जिम्मेदार है, इसके बावजूद इसे राकेने के लिए ठोस कदम उठाने के बजाय ज्यादातर देशों के राजनीतिक प्रतिनिधि सम्मेलनों में इकट्ठे होकर घड़ी के पेण्डूलम की भाँति एक-दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगा महज औपचारिकता की नीति अपना रहे है।

संधि, सम्मेलन व प्रोटोकॉल की फोरी दवा से राहत की आशा में दिन-ब-दिन समस्या विकराल बनती जा रही है। आखिर कौन है इसका वास्तविक जिम्मेदार विकासशील या विकसित देश? किसे प्राथमिकता दी जाये प्रकृति या प्रगति को? क्या होनी चाहिए समेकित रणनीति? आदि कई प्रश्न हमारे मन मस्तिष्क को निरंतर उत्पन्न हो रहे है,जिनके जवाब अपेक्षित है?

मनुष्य विज्ञान और तकनीकी के नशे में और कितने दिन प्रकृति को अपने पांवों तले कुचलता रहेगा। सूखा, अकाल, तूफान, रेगिस्तान, जलवायु परिवर्तन ग्लोबल वार्मिंग आदि इसके स्थायी पदचिह्न बन गये है। किंचित यात्रा मात्र से प्रकृति इतनी दूषित हुई है, अगर इसी तरह से भविष्य में भी चलते रहे तो कितनी भयावह स्थिति होगी। सारी गलती मानवीय जीवन शैली और व्यवस्था में है इसलिए हमें मानवीय समाज नवसृजन करना होगा। मनुष्य यदि सतत्

विकास की अवधारणा का ज्ञान के साथ सामंजस्य बिठाये तो प्रकृति और प्रगति दोनों की मित्रता, विज्ञान के नाम पर तोड़ी नहीं जायेगी। साथ ही विकासशीलता के उच्चतम शिखर की प्राप्ति होगी। परन्तु ये उपाय तात्कालिक आर्थिकव राजनीतिक ख्यालों पर निर्भर न होकर प्रकृति के वैद्य स्वभाव पर निर्भर होने चाहिए। जिस तरह मानव ने आदिम सभ्यता से वर्तमान तकनीकी युग तक का सफर अपनी जिजीविषा से तय किया है उसी प्रकार यह बात अंगद के पावं की तरह अटल है कि इस समस्या का समाधान भी कर लिया जायेगा, परन्तु हमें अपने अतिरिक्त प्रयासों के द्वारा उक्त समय सीमा को कम करना होगा और यह सत्य होगा कि लाहेे के पडे़ हरे होंगे।

मीडिया – दशा और दिशा” पर निबन्ध का नमूना

(नोट :- यह सम्पूर्ण निबन्ध नहीं है, निबन्ध लेखन हेतु महत्वपूर्ण वाक्यों/अनुच्छेद का संकलन है।)

लोकतंत्र का चतुर्थ स्तम्भ, आम आदमी की आवाज, शासक एवं शासितों के मध्य सपंर्क सेतु, समाज व लोकतंत्र का दर्पण तथा निराशा के अँधेरे में उम्मीद का चिराग जैसी संज्ञाओं से सुशोभित पत्रकारिता के लिए यह चिंतन, चिंतित, चकित और विचलित होने का समय है कि अब पत्रकारिता अपने मूल दायित्वों से भटककर ‘‘कॉर्पोरेट कल्चर’’ व ‘‘बाज़ार’’ के इशारों पर संचालित हो पतन की ओर अग्रसर है।

सबसे तेज़, सबसे आगे व सबसे पहले की अंधी दौड़ के समानांतर ‘‘टी.आर.पी.’’ की बेतहाशा होड़ में ‘‘बाजार’’ एवं ‘‘विचार’’ के मध्य जंग छिड़ी हुई है जिसमें विचार पिछड़ता जा रहा है।

‘‘जो बिकेगा वो टिकेगा’’ के इस प्रतियोगी युग में पत्रकारिता न जाने कब मीडिया बन गई और ‘‘पेड न्यूज़’’ व ‘‘पीत पत्रकारिता’’ के स्याह कालिख से पुती हुई गुनगुना रही है कि ‘‘गंदा है पर धंधा है’’।

आज मीडिया का कैमरा ग्राम, कृषि, श्रम, अशक्त समाज व मैले-कुचेले कपड़ो से मुख मोड़कर धर्म-पाखंड, भूत-प्रेत, हास्य कार्यक्रमों, रियलिटी कार्यक्रमों पेज-3 व सास-बहू की साजिशों की सनसनी फ़ैलाने वाले गौण व अवांछित मुद्दों की तरफ मुड़ गया है।

सामाजिक समस्याओं व हकीकत पर नजर रखने के बजाय बाज़ारू विज्ञापनों का लबादा ओढ़कर अपनी जिम्मेदारियों से मुख मोड़ने वाली इस मीडिया की हालत उस पुरानी और खस्ताहाल साइकिल की तरह हो गई है जिसमें घंटी के सिवाय हर पुर्जा आवाज करता है। अर्थात मुख्य कार्य तो गर्त में चले गये जबकि गौण कार्य हावी हो गये हैं।

ऐसा नहीं है कि सारा तालाब ही गंदा पड़ा है लेकिन कुछ गंभीर और सकारात्मक प्रयास कोने में अलग-थलग पडे़ उम्मीदों का चिराग जलाये हुए है कि कब ये अँधेरे के बादल छटेंगे और मीडिया की सकारात्मक छवि प्रभावी होगी। परन्तु हम उन चंद लोगों की चर्चा ही क्यों करें जिन्होने पत्रकारिता को धंधा बना लिया जबकि बात उन कलम के पुजारियों की होनी चाहिए जिन्होनें परिस्थितियों के अनुसार राष्ट्र, समाज और लोकतंत्र की अस्मिता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए अपनी कलम को कभी तलवार तो कभी ढाल का रूप देते हुए अपने मूल उद्देश्यों दायित्वों व विचारों की डोर को थामे हुए रखा है।

वस्तुतः बाज़ारवाद की मार झेल रहा मीडिया अपनी दिशा से भटककर भौतिकता की चकाचौंध की तरफ अधिक आसक्त है। परंतु हताशा के इस अंधियारे में हमें उम्मीदों के चिराग जलाये रखने होंगे। मीडिया की स्वतंत्रता के नैसर्गिक अधिकारों का सम्मान करते हुए उस पर किसी प्रकार के बाह्य अंकुश की बात सर्वथा अनुचित कही जा सकती है परंतु मीडिया समाज में एक रचनात्मक भूमिका का निर्वहन करे तथा समाज को नवीन दिशा प्रदान करने वाले मार्गदर्शक का कार्य करे इस हेतु स्वयं मीडिया को ही आत्म-मंथन एवं आत्म-नियमन करना होगा।

साथ ही समाज भी दो कदम आगे बढ़कर पतनशील मीडिया की डोर थामे व सही राह दिखाने का प्रयास करें आखिर मीडिया समाज का ही दर्पण होता है तथा इसकी नैतिकता भी समाज के सापेक्ष ही है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि मीडिया को उसकी जिम्मेदारियों का एहसास करवाना होगा कि मात्र बढ़ती लोकप्रियता, शीघ्र धनोपार्जन तथा भौतिकता की चकाचौंध फैलाकर ही वह समाज में अपना महत्वपूर्ण स्थान कायम नहीं रख पायेगी।

समाज और लोकतंत्र की यह अंतरात्मा अगर पूर्ण समर्पण और ईमानदारी पूर्वक अपने दायित्वों का निर्वहन करे तो मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ होने की बजाय लोकतंत्र की छत बन जायेगा। जिसकी छाँव में लोकतंत्र एवं इसके मूल्यों की रक्षा सुनिश्चित हो पायेगी। बाज़ार और विचार की जंग में अंततः जीत विचार की ही होगी। निःसंदेह आने वाले कल की मीडिया और अधिक सशक्त और प्रभावशाली होगी।

नक्सलवाद” पर निबन्ध का नमूना

(नोट :- यह सम्पूर्ण निबन्ध नहीं है, निबन्ध लेखन हेतु महत्वपूर्ण वाक्यों/अनुच्छेद का संकलन है।)

बंदूक जिनके लिए राजनीति है एवं सशस्त्र राजनीतिक संघर्ष के जरिए भारत में नव-जनवादी क्रांति जिनका सपना। वे हथियार छोड़ते नहीं और उनकी मांगों को पूरा करना फिलहाल सरकार के बस में नहीं दिखता। अपनी छापामार युद्ध पद्धति व बैलट के बजाय बुलेट की राजनीति पर पशुपति से तिरूपति तक ‘‘लाल गलियारे’’ में लाल झण्डा फहराने की मुहिम ने विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र एवं मानवाधिकारों के सबसे बडे़ पैरोकारी देश के ललाट पर प्रश्न चिह्न खड़ा कर दिया है।

आखिर क्या हैं-नक्सलवाद? क्या है उनकी मांगे एवं विचारधारा? क्या है इसकी उत्पत्ति के कारण? कौन है इस समस्या का वास्तविक जिम्मेदार? कितनी भयंकर है नक्सलवाद की विशबेल? क्या हो इसके उन्मूलन के उपाय? आदि अनेक प्रश्न मन-मस्तिष्क में निरन्तर उत्पन्न हो रहे हैं जिनके जवाब अपेक्षित है।

नक्सलवाद एक विचारशून्य, चिंतनशून्य व भटका हुआ आन्दोलन है जो वास्तविक उद्देश्यों से भटककर असामाजिक व अलगाववादी ताकतों की कूटनीति का मोहरा बन गया है। ‘‘नक्सलवाद अभावों में पनपी अवाम के अधैर्य की उपज है’’ जो अपने भविष्य को सुरक्षित करने की जिद में वर्तमान को कुर्बान कर रहे है। वस्तुतः नक्सलवाद माओवाद का भारतीय संस्करण है।

‘‘शक्ति बंदूक की नली से निकलती है’’ की विचारधारा के आधार पर सदियों से अभावों में पनपी भारतीय अवाम काे अविकास, अविश्वास, भ्रष्टाचार, लालफीताशाही, प्रशासनिक-राजनैतिक उपेक्षा एवं राष्ट्र-राजनीति-समाज की मुख्य धारा से अलग-थलग इन लोगों को राष्ट्र विरोधी ताकतों ने गुमराह कर शस्त्र उठाने के लिए प्रेरित किया है।

‘‘बंदूक से आदमी को मारा जा सकता है विचार को नहीं’’ हथियार से आदमी के विचार को मारने की कोशिश वास्तव में उसके विस्तार को ही गति प्रदान करती है। इसलिए दण्डात्मक के बजाय सुधारात्मक उपाय उपाय अपनाने चाहिए। नक्सलवाद उन्मूलन के लिए बहुआयामी समेकित रणनीति अपनायी जानी चाहिए।

नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में ‘‘समावेशी व सतत् विकास’’ की अवधारणा अपनाते हुए रोजगार के अवसरों में वृद्धि, प्रशासनिक मशीनरी को सुदृढ़ करने, संवेदनशील, त्वरित, कुशल एवं न्यायप्रिय जवाबदेही प्रशासन, भ्रष्टाचारमुक्त एवं पारदर्शी सुशासन अपनाया जाकर समानार्थिक विकास की पहुँच समाज के निचले तबके तक पहुँचाने का कार्य करना होगा।

सामाजिक न्याय के अभाव में सदियों से उपेक्षित एवं हीन भावना से ग्रस्त जनता दो जून की रोटी एवं तन ढ़कने के लिए दो गज कपडे़ के प्रलोभन में किसी भी अनैतिक, अलगाववादी व राष्ट्रविरोधी ताकत का झण्डा उठा लेती है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि इस वंचित-शोषित वर्ग को समाज की मुख्यधारा में लाया जायें एवं अलगाववादी-राष्ट्रविरोधी विचारधारा/ताकतों से दूर रखें इसके लिए प्रबल राजनीतिक-इच्छा शक्ति के साथ प्रशासनिक तंत्र को और अधिक पारदर्शी, उत्तरदायी, संवेदनशील, त्वरित, समर्पित व भ्रष्टाचारमुक्त बनाना होगा।

महिला सशक्तीकरण : कितना मिथक-कितना यथार्थ” पर निबन्ध का नमूना

(नोट :- यह सम्पूर्ण निबन्ध नहीं है, निबन्ध लेखन हेतु महत्वपूर्ण वाक्यों/अनुच्छेद का संकलन है।)

राजनीति, खेल, प्रशासन, विज्ञान व कॉर्पोरेट जगत में कुछ-एक महिलाओं की कामयाबी पर बजने वाली तालियां की गंजू पर अपनी पीठ थपथपाने वाला यह देश/समाज उन पीड़ाओं काे नहीं सुन पा रहा है देश के भीतरी अंचलों से आ रही है। अखबारों की सुर्खियों में अत्याचारों के नित नए दंश झेलती यह आधी आबादी, आजादी के 74 साल बाद भी लैंगिक न्याय से वंचित है। अपने हितों के अनुरूप पुरूष प्रधान समाज ने महिला को कभी देवी तो कभी दासी का दर्जा दिया किन्तु बराबरी का दर्जा नहीं दिया। कितने दुर्भाग्य की बात है कि सभ्यता के विकास की कहानी अपने पन्ने पलटकर वहीं खड़ी दिखाई दे रहीं है जहाँ से इसकी शुरूआत हुई थी।

प्रगति की ऊंचाइयों को एक ही पंख द्वारा उड़कर छूने की पुरूषवादी मानसिकता ने न केवल महिला अपितु सम्पूर्ण मानवीय जीवन, समाज व राष्ट्र को प्रगति की प्रतिगामी पटरी पर ला खड़ा कर दिया। सशक्तिकरण की योजनाएं परम्परागत पुरूष प्रधान सामाजिक ढाँचे के चलते सिर्फ कागजों तक ही सिमट कर रह गई। आखिर क्यों हो रहे है- सशक्तीकरण के प्रयास नाकाम? क्या है इसके कारण? क्या है पुरूषवादी मानसिकता? कौन है महिलाओं की इस स्थिति के लिए जिम्मेदार? क्या होने चाहिए महिला सशक्तीकरण के ठोस प्रयास? आदि अनेकों प्रश्न हमारे मन-मस्तिष्क में निरंतर उत्पन्न हो रहे है जिनके जवाब अपेक्षित है।

‘‘ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट कृति, सृष्टि का उद्गम स्त्रोत, जीवनरूपीद्विपादचक्रवाहिनी का एक मजबूत पहिया, ममता एवं करूणा की प्रतिमूर्ति, त्याग एवं बलिदान की अधिष्ठायी, प्रेम एवं समर्पण की पर्याय, सौम्य एवं शीलता का अध्याय’’ जैसी संज्ञाओं से सुशोभित नारी शक्ति।

किसी भी कानून का असर उसकी व्यापकता, सामाजिक सरोकार एवं समाज द्वारा स्वीकार्यता पर निर्भर करता है।

समाज की नैतिकता समाज के सापेक्ष होती है। महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए बने अनेक कानूनों का असर कम होने का कारण उन्हें सामाजिक मान्यता नहीं मिल पाना ही है। सामाजिक ढाँचे व सोच में परिवर्तन के बिना मौजूदा कानून के सहारे महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार की उम्मीद करना पत्थरों पर दूब उगाने के समान है।

विडम्बना यह है कि सरकारी संस्थागत व नीतिगत प्रयासों के बाजदूर स्वयं महिलाएं अपने हितों के प्रति जागरूक नहीं है तथा न ही इस हेतु कोई सकारात्मक पहल की है। इसलिए सर्वप्रथम जरूरत इस बात की है कि जब तक महिलाएं स्वयं इन बैसाखियों काे त्यागकर स्वयं चुनौती स्वीकार करके महिला सशक्तीकरण को आगे नहीं आयेंगी तब तक कानून अधिक कारगर साबित नहीं होंगे।

भारत की विदेश नीति एवं पड़ोसी देश” पर निबंध का नमूना

भारत के छोटे पड़ोसी देशों की यह एक मनोवैज्ञानिक विवशता है कि वे भारत के बड़े आकार से डरते है। भारत की पड़ोसी उन्मुख सहयोगी नीति को Big Brother Syndrome की दृष्टि से देखते हुए अपनी स्वतंत्र राष्ट्रीय पहचान प्रमाणित करने के लिए भारत विरोध का स्वर मुखर करते है।

इनमें से कई देशों ने समय-समय पर बाह्य शक्तियों काे हस्तक्षपे का आमन्त्रण देकर भारत काे कृत्रिम रूप से असंतुलित करने का प्रयास किया है। इनमें पाकिस्तान द्वारा अमेरिका एवं चीन के साथ सैन्य गठबंधन, श्रीलंका की चीन परस्त नीति व चीन की गोद में बैठने का प्रयास, सैन्य जुंटा शासन के दौरान म्यांमार का चीनी प्रेम एवं नेपाल का माआवेादी झुकाव प्रमुख है। विदेशी ताकतों काे भारत विरोधी गतिविधियां संचालित करने के लिए जमीन उपलब्ध करवा कर भारत पर मनावैज्ञानिक दबाव डालते हुए सहायता एवं व्यापार में रियायतें प्राप्त करने का प्रयास किया है।

इसे विडम्बना ही कहा जा सकता है कि यदि भारत अपनी सामर्थ्य का प्रदर्शन भर करता है तो उस भयादोहन का आरोप लगाया जाता है आरै यदि भारत अपनी उदारता प्रमाणित करने के लिए रियासतें प्रदान करता है तो उसकी दुर्बलता का फायदा उठाने की कोशिश करते है।

वस्तुतः भारत अस्थिर पडोसियों से घिरा हुआ है। दक्षिण एशिया वृतीय विश्व का ही एक भाग हैं इनका अतीत उपनिवेशवादी शक्तियों के शोषण का शिकार रहा है तथा वर्तमान नवउपनिवेशवाद व आर्थिक प्रभुत्व जैसी विकसित राष्ट्रों की नीतियों का शिकार है।

नित आतंकी वारदातें चौतरफा भ्रष्टाचार, दयनीय इन्फ्रास्ट्रक्चर, अपर्याप्त स्वास्थ्य व्यवस्था, धार्मिक संकीर्णताएं, नृजातीय संघर्ष, नदी-जल एवं सीमा विवाद तथा सामाजिक सांस्कृतिक विषमताएं दक्षिण एशिया की वैश्विक पहचान बन गई है। भारत के पड़ोसी देशों की अर्थव्यवस्था वैश्वीकरण की आवश्यकताओं की प्रतिक्रिया देने व समानांतर विकास में शिथिल रही है।

दक्षिण एशिया के देशों काे विरासत में साझा संस्कृति, साझा अतीत, साझा सभ्यता एवं साझा धार्मिक विविधताएं मिली है। दुनिया के नौ महान धर्मो का घुलन केन्द्र तथा सभ्यतागत, सांस्कृतिक एवं नृजातीय विविधताओं वाली इस परखनली में टकराव लाजमी है।

दक्षिण एशिया का भविष्य पहली नजर में उज्ज्वल नजर नहीं आता। पाकिस्तान अपनी धार्मिक कट्टरपन की नीति, भस्मासुर आतंकवाद एवं फौजी हुकूमत की वजह से आज युगोस्लाविया बनने की कगार पर खड़ा है।

श्रीलंका अभी 27 साल चले गृह युद्ध के प्रभावों से बाहर निकलते हुए चीन की गोद में बैठता जा रहा है। हिमालय की उपत्यका में बसा हुआ पुष्परूपी देश नेपाल आज चीनी माओवाद के प्रभाव से भारत के लिए कैक्ट्स बनता जा रहा है। नवस्थापित लोकतांत्रिक भूटान भारत के लिए विश्वस्त बफर स्टेट की भूमिका निभा रहा है। लोकतंत्र की दहलीज पर खड़ा म्यांमार साम्प्रदायिक हिंसा में लिपटा हुआ है। मालदीव लख्तापलट की गरमा-गरमी से उबर नहीं पाया है। विश्व राजनीति का अखाड़ा अफगानिस्तान युद्ध एवं आतंकी हमलों में उलझा हुआ अमेरिकी हथियारों की प्रयोगशाला बना हुआ है।

कहीं विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत बिग ब्रदर सिण्ड्रोम एवं दिल्ली सिण्ड्रोम में उलझा हुआ चीनी मोतियों की माला, बाह्य आतंकी हमलों एवं आंतरिक नक्सली धुन से त्रस्त है।

भारत में जाे आतंकवाद की विश बैल फैली हुई है उसकी जुडे पड़ासे की मिट्टी में दबी हुई है आरै वहां की राजनीतिक अस्थिरता का लाभ उठाकर फल-फूल रही है। इसलिए हमारी विदेश नीति का पहला प्रयास यहीं होना चाहिए कि पड़ोसी की अस्थिरता का जोखिम नहीं झेलना पडे। वहां से न राष्ट्र विरोधी गतिविधियां संचालित हो एवं न ही विदेशी ताकतें अपने अड्डे स्थापित कर भारत काे घेरने की कोशिश  करें। 

वर्तमान वैश्विक परिदृश्य से भू-राजनीतिक, भू-सामरिक एवं भू-आर्थिक समीकरण तेजी से बदल रहे है। एक उभरती हुई वैश्विक ताकत के रूप में भारत की गिनती और महाशक्तियों के साथ नित नए पड़ोसियों के साथ बनते-बिगडते रिश्तों के समानांतर भारतीय विदेश नीति का मलू मत्रं यही होना चाहिए कि ‘‘अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में न तो कोई स्थायी दोस्त होता है और न ही स्थायी दुश्मन सिर्फ राष्ट्रीय हित ही स्थायी होते है।’’ इसलिए हमारा प्रयास यही होना चाहिए कि पड़ोसियों के साथ सम्बन्ध मधुर रहे क्योंकि हमारा न केवल अतीत अपितु भविष्य भी इनके साथ जुड़ा हुआ है। ‘‘मित्र का तो कोई विकल्प हो सकता है परन्तु पड़ोसी का कोई विकल्प नहीं होता।’’ यदि भारत को

अपनी वैश्विक महत्वकाक्षाएं परी करनी है ताे पड़ोसी देशों की तुच्छ हरकतों और मामलूी विवादों में उलझकर शक्ति का हास नहीं करना चाहिए। विश्व व्यवस्था के शक्ति त्रिभुज में चीन और अमेरिका के साथ तीसरे कोण के रूप में उभरना होगा। इसी लक्ष्य काे दृष्टिगत रखते हुए पड़ासेी देशों से सम्बन्ध सुधारने के लिए भारत काे पहले एशियाई रंगमचं पर उभरना होगा। इसलिए पड़ोसी उन्मुख कूटनीति अपनाते हुए गुजराल सिद्धान्त के आधार पर पड़ोसियों के साथ आर्थिक सम्बन्ध मजबूत करने होंगे।

सहायता, व्यापार, पारगमन, आवागमन एवं सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक आदन-प्रदान के माध्यम स विश्वास बहाली के प्रयास अपनाये जाने चाहिए। फास्ट ट्रेक कूटनीति के साथ-साथ ट्रेक-2 कूटनीति जारी रखनी होगी। आर्थिक सम्बन्धों की सृदृढता इस बात की द्योतक है कि वर्तमान वैश्वीकरण के युग में कुछ भी आर्थिक सम्बन्धों और बाध्यताओं के परे नहीं हो सकता।

व्यापारिक सम्बन्ध और राजीतिक सम्बन्ध दोनां जुडवा बहनें है और एक दूसरे पर काफी निर्भर करते है। जिन देशों के बीच व्यापारिक संलग्नता होती है उनके बीच बल प्रयोग की संभावना कम होती है। एक ठोस आर्थिक मंच पर बना हुआ सम्बन्ध किसी कट्टरपंथी हमले या राजनीतिक अस्थिरता को झेल सकता है। व्यापार की मजबुरियां पडोसी देश को विवाद के समाधान के लिए बातचीन करने पर प्रेरित करती है।

अतीत के अविश्वास एवं रिश्तों की तमाम जटिलताओं के बावजूद बदलते अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में आपसी प्रतिस्पर्धा के साथ-साथ सहयोग की जरूरत को समझना होगा। द्विपक्षीय विवादों का मित्रतापूर्ण विचार-विमर्श के साथ समानता के आधार पर द्विपक्षीय वार्ता के माध्यम से शांतिपूर्ण तरीके से दोनों पक्षों को स्वीकार्य, पादर्शी एवं उचित समाधान होना चाहिए। अस्थिरता और विवादों से घिरे इस क्षेत्र में अस्थिरता को खत्म करने के लिए सर्वप्रथम उन्हें आर्थिक मुख्यधारा में लाया जाना चाहिए। और एसेा करने के लिए भारत काे मुख्य निर्णायक भूमिका निभानी होगी।

वार्ता की मेज संवादहीनता को कम कर देती है तथा अविश्वास की गहरी खाइयां भर जाती है। आर्थिक सांस्कृतिक रिश्तों और कूटनीति की चाबी की बदौलत कई एसेे राष्ट्रीय हितां के ताले खुल जाते है जाे सैन्य ताकत के बल पर हासिल नहीं किये जा सकते। रिश्तों की बर्फ पिघलते देर नहीं लगती। जब हजारों साल लड़ने के बाद सारा यूरोप एक हो सकता है, यूरोपीय संघ एक मुद्रा और एक झण्डे का इस्तेमाल करने लगा है तो संभव है कि आने वाले समय में यहाँ का माहौल बदल जायेगा।

पारस्परिक आदान-प्रदान कूटनीति का पहला सिद्धांत है परन्तु हमें गुजराल सिद्धातं के अनुरूप बिना प्रतिफल की इच्छा किये पडोसियों की मदद करनी है परन्तु बदले में हमें सिर्फ यह चाहिए कि वे भारत विरोधी गतिविधियों को कोई स्थान नहीं दे।

दक्षिण एशिया की स्थिरता एवं आर्थिक खुशहाली भारत की एक निजी जरूरत है इसलिए आज यह जरूरी है कि भारत इन पड़ोसी देशों की भाषागत, सभ्यतागत, सांस्कृतिक, धामिर्क एवं नस्लीय विविधताओं, आर्थिक, चुनौतियों और राजनैतिक कमजोरियों काे सहानुभूति के साथ देखें और उनके समाधान के लिए सक्रिय भि मका निभानी चाहिए। भारत को पड़ोसी विवादों में अपनी ऊर्जा नष्ट नहीं कर सामंजस्य बिठाते हुए अपने लक्षित उद्देश्यों और व्यावहारिक लक्ष्य राष्ट्रीय हितों की पूर्ति पर ध्यान देना चाहिए।

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